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होरी / लोकेश नवानी

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कुछ न कुछ त कनी छैंच कुछ न कुछ।
कुछ न कुछ त ब्वनी छैंच कुछ न कुछ।।
हिमालै को सज संमाल हिमालै जो बुतद बांद
आजकल पहाड़ों मा वो कविता नारा गीत गांद
बीजिगे वो जागिगे वो गाडि याल वींल बाच
गाड धार गौं बजार वींकि गूंजिगे अवाज़
मन मा एक गाणि लेकि ब्वनी छैं च कुछ न कुछ।
या मयड़ि पहाड़ की च ब्वनी छैंच कुछ न कुछ।।
हक्क रैगि देखि कि वीं बैरु गूंगु राजकाज
कौंपि दिल्लि लखनउ मां अफरा-तफरी भारि आज
लुटेरों की निंद हराम उठ्यां देखि वींका हाथ
सड़क्यूं कचहर्यूं मां वींल भै रे मारि याल धाद
हर कदम पर अगाड़ी ब्वनी छैंच कुछ न कुछ ।
या मयड़ि पहाड़ की च कनी छैंच कुछ न कुछ।।
धर्ति का सुपिना देखि सोची कि माटी कु मान
जेलों का भितर का बि गै वा हथगुली मा रखी जान
जलसा धरना खून देकि मोरचा संभाल वींन
यीं लड़ै मा हक का बान ख्वेनि अपणा लाल वींन
दुश्मनू चुनौति दींदि ब्वनी छैंच कुछ न कुछ।
या मयड़ि पहाड़ की च कनी छैंच कुछ न कुछ।।
होलि कबि न कबि सुफल य धर्ति मां हर्यात आलि
कबि न कबि त छयीं चा जो कालि या कुएड़ि फटालि
होलु कबि न कबि उज्यालु वींन ये देखीन ख्वाब
यूं भुलों दगड़ बि होलु कबि न बि त् न्यो निसाब
अटगणी च भटगणी च ब्वनी छैंच कुछ न कुछ।।
कबि न कबि त् कुछ न कुछ त् ह्नेकि रालु कुछ न कुछ
कखि न कखि त् कुछ न कुछ न कुछ त् ह्नेकि ह्वालु कुछ न कुछ
एक दिन जरूर नै उज्यालु पाडु मा बि आलु।
आस च विश्वास वीं च कालु यो अंधेरु कट्यालु।
मन मा यी परण कैकि कनी छैंच कुछ न कुछ
या मयड़ि पहाड़ की च ब्वनी छैंच कुछ न कुछ
कुछ न कुछ त ब्वनी छैं च कुछ न कुछ
कुछ न कुछ त कनी छैं च कुछ न कुछ