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'. . . . .कोई खो गया है' / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
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हृदय-नगरी में बड़ा शोर मचा है
शायद ! कोई अन्दर खो गया है
कुछ झूमती हुई , बदहवासियाँ,
शोर मचाती चिल्लाती खामोशियाँ
मन के, नीले गगन में उड़ती रहीं
कुछ जवान-चंचल चिड़ियों की तरह!
मैंने दिल से पूछा, दिल रो पड़ा है
शायद ! कोई अन्दर खो गया है!
दु:खों में क्या पत्थर भी रोते हैं कोई
अक्स चूमते – धरा भिगोते हैं कोई?
जब सारा जग सोता है हम जागते हैं
या फिर अपना बुत ख़ुदी तराशते हैं !
मेरे हृदय में पूरा संसार बसा है
और ज़िस्म पत्थर का हो गया है
शायद ! कोई अन्दर खो गया है!