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ये पत्तियों पे जो शबनम का हार रक्खा है / के. पी. अनमोल

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जिसने हर इक की ज़रूरत का भरम रक्खा है
रब ने भी उसकी सख़ावत का भरम रक्खा है

उसका एह्सान कभी भूल नहीं सकता मैं
जिसने हर पल मेरी इज़्ज़त का भरम रक्खा है

मुझसे नफ़रत भी दिखावे के लिए कर थोड़ी
इसी नफरत ने मुहब्बत का भरम रक्खा है

मेरी आदत है उसे देखे बिना चैन नहीं
उसने भी ख़ूब इस आदत का भरम रक्खा है

नाम लिख लिख के इमारात कि दीवारों पर
तुमने क्या ख़ूब विरासत का भरम रक्खा है

फूल के बीच में काँटों को बसा कर तुमने
किस नफ़ासत से नज़ाकत का भरम रक्खा है

वो दिलासे जो छलावों की तरह है अनमोल
उन दिलासों ने हुकूमत का भरम रक्खा है