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हरेराम समीप के दोहे-3 / हरेराम समीप

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लोकतंत्र के खेत में, बोया भ्रष्टाचार
राजनीति खेती करे, पानी दे बाज़ार

देखा तानाशाह ने, ज्यूँ ही आँख तरेर
लगा तख़्त के सामने, जिव्हाओं का ढेर

कुर्सी थानेदार की खुली सामने ताश
देख रहे पीछे टंगे गांधी और सुभाष

कलतक था जिसजगह पर, वैभव महल विशाल
वहीं खुदाई में मिले, ढेरों नर-कंकाल

रह ना पाएँ चैन से, ना जा पाएँ भाग
ले आया जाने कहाँ, यह धन से अनुराग

रहा शहर में ऊबता, मगर न लौटा गाँव
मुझको भटकाती रही, इच्छाओं की छाँव

भूल न पाया गाँव का मैं अपना घर-बार
बरसों मन सहता रहा, विस्थापन की मार

पहले तो उसने तुम्हें, बहुत पुकारा कृष्ण!
लटक गया फांसी लगा, बना स्वयम इक प्रश्न

खो देता हूँ स्वयं को, फिर करता हूँ खोज
दुहराता हूँ नगर में, यही कहानी रोज

दादाजी राजी नहीं, अभी छोड़ने गाँव
मिट्टी पकड़े है अभी, इस बरगद के पाँव

झुकती जाती है नजर गर्दन भी हर रोज़
भारी होता है बहुत एहसानों का बोझ

मैं हूँ इस दूकान का, नौकर एक जनाब
लगा हुआ हूँ सेठ के, पूरे करने ख्वाब

आया है सय्याद फिर, चलने शातिर चाल
एक हाथ दाने रखे, एक हाथ में जाल

छीनेंगे वे चेहरा, यादें फिर धन, धाम
लेकिन छीना जाएगा, पहले तेरा नाम

यह विकास के नाम पर, रचा गया जो व्यूह
जिस दिन समझोगे मियां, कांप जाएगी रूह

खड़े रहे मुँह ताकते, निर्धन औ नादान
फिर विकास के फायदे, हड़प गये धनवान

लगा हुआ है बेचने, जो तू अपने ख्वाब
सूख न जाए देखना, आंखों का तालाब

सबसे ऊंचे बुर्ज से, धन करता ऐलान
सारे ईश्वर मर गए, अब मैं हूँ भगवान

देखो तो शालीनता,ये लिहाज-सम्मान
चिट्ठी में इक दुष्ट को,लिखता हूँ ‘श्रीमान

पत्थर जैसे शहर में, लिए काँच की देह
भटक रहे हैं सादगी, अपनापन, स्नेह

दुनिया से ज्यादा उसे, अपना रहे ख्याल
वो हर हफ्ते नियम से,रंग लेता है बाल

नदिया पहुंचे सिन्धु से, होकर फिर आकाश
पानी को भटका रही, है पानी की प्यास

गिरिशिखरों से सिन्धु तक रहती हो मेहमान
नदी तुम्हारा क्या नहीं अपना एक मकान

बिटिया को करती विदा,माँ ज्यों नेह समेत
नदिया सिसके देखकर,ट्रक में जाती रेत

छू मत लेना तुम इसे, ये बन गई अज़ाब
नदिया में पानी नहीं, बहता है तेज़ाब