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आश्वास / महेन्द्र भटनागर

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::घने कुहरे ने
ढक लिया आकाश,
घने कुहरे ने
भर लिया आकाश !

रास्ते सब बन्द हैं,
जीवन निस्पन्द है !
कितना
सिकुड़ गया है क्षितिज —
चारों ओर का विस्तृत क्षितिज !
धुँधले पर्यावरण में
क़ैद हैं हम,
कितना विषम है
समय की सातत्यता का क्रम !

ध्वनि-तरंगें रुद्ध हैं,
समूची चेतना
भयावह वातावरण में बद्ध है,
सब तरफ़
मात्रा एक
स्थिर अलस मूकता का राज है,
स्तम्भित
सहमा हुआ
समस्त समाज है।

सुनो
मैं आता हूँ,
सूरज की तरह आता हूँ !
दृष्टि का आलोक
मेरे पास है,
आत्म-शक्ति का
अक्षय विश्वास है !

अँधेरे के
कुहरे के
पर्वतों को ढहा दूंगा !
मार्ग-रोधक
सब बहा दूंगा !

आकाश
फिर गूँजेगा,
नाना ध्वनियों से गूँजेगा !
प्रकाश
फिर फैलेगा,
उमड़ता
लहरता
धारा-प्रवाह
प्रकाश फैलेगा।