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अनुशासित जीवन / ओम नीरव

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शिल्प-सधी गीतिका विधा है, जैसे अनुशासित जीवन।
दोनों के प्रणयन से होता, पग-पग सुख का संवर्धन।

मुखड़ा, युग्म, तुकांत, छंद-लय, इनके सरस समागम से,
हिन्दी-पोषित बने गीतिका, जब हो एक विशेष कहन।

आड़ी-तिरछी ऊँची-नीची, डगर भले हो पर हमको,
साध-साध पग रखना होगा, जीवन हो या काव्य-सृजन।

कलयुग के कालिये कला से, मुसकाकर झुककर मिलते,
कुटिल विषैली मुसकानों को, समझ न लेना अभिवादन।

बैसाखी पर चलने वाले, जीत रहे हैं दौड़ सभी,
टाँगों वाले अपवर्जित हो, झेल रहे युग का लांछन।

अपनी भूल निरखते अपना, जीवन बीत गया सारा,
सीना फुला-फुला भूलों पर, पप्पू चलता है बन-ठन।

कवि-चरित्र को बेच न देना, कुछ तमगों के लालच में,

लक्ष्य लेखनी का होता बस, सरस्वती माँ का अर्चन।

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आधार छंद-लावणी
विधान-30 मात्रा, 16, 14 पर यति, अंत में वाचिक गा