भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नौकरी पाने की उम्र / विजयशंकर चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:50, 30 अप्रैल 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजयशंकर चतुर्वेदी }}जिनकी चली जाती है नौकरी पा...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिनकी चली जाती है नौकरी पाने की उम्र

उनके आवेदन पत्र पड़े रह जाते हैं दफ्तरों में

तांत्रिक की अँगूठी भी

ग्रहों में नहीं कर पाती फेरबदल

नहीं आता बरसोंबरस कहीं से कोई जवाब

कमर से झुक जाते हैं वे

हालाँकि इतनी भी नहीं होती उमर

सब पढ़ा-लिखा होने लगता है बेकार

बढ़ी रहती हैं दाढ़ी की खूँटियाँ

कोई सड़क उन्हें नहीं ले जाती घर

वे चलते हैं सुरंगों में

और चाहते हैं कि फट जाए धरती

उनकी याद्दाश्त एक पुल है

कभी-कभार कोई साथी

नजर आता है उस पर बैठा हुआ

वे जाते हैं

और खटखटाते हैं पुराने बंद कमरे

वहाँ कोई नहीं लिपटता गले से

चायवाला बरसों से बूढ़ा हो रहा है वहीं

मगर बदल जाते हैं लड़के साल दर साल

जिनकी चली जाती है नौकरी पाने की उम्र

वे सोचते हैं नए लड़कों के बारे में

और पीले पड़ जाते हैं।