कोयल :कैक्टस : कवि / हरिवंशराय बच्चन
कोयल:
"तुझे
एक आवाज़ मिली क्या
तूने सारा आसमान ही
अपने सिर पर उठा लिया है-
कुऊ...कुऊ...कु...!
कुऊ...कुऊ...कु...!
तुझे मर्मभेदी, दरर्दीला,
मीठा स्वर जो मिला हुआ है,
दिशा-दिशा में
डाल-डाल में,
पात-पात में,
उसको रसा-बसा देने को
क्या तू सचमुच
अंत:प्रेरित
अकुलाई है?
या तू अपना,
अपनी बोली की मिठास का,
विज्ञापन करती फिरती है
अभी यहाँ से, अभी वहाँ से,
जहाँ-तहाँ से?"
वह मदमाती
अपनी ही रट
गई लगाती, गई लगाती, गई...
कैक्टस:
रात
एकाएक टूटी नींद
तो क्या देखता हूँ
गगन से जैसे उतरका
एक तारा
कैक्टस की झारियों में आ गिरा है;
निकट जाकर देखता हूँ
एक अदभुत फूल काँटो में खिला है-
"हाय, कैक्टस,
दिवस में तुम खिले होते,
रश्मियाँ कितनी
निछावर हो गई होतीं
तुम्हारी पंखुरियों पर
पवन अपनी गोद में
तुमको झुलाकर धन्य होता,
गंध भीनी बाँटता फिरता द्रुमों में,
भृंग आते,
घेरते तुमको,
अनवरत फेरते माला सुयश की,
गुन तुम्हारा गुनगुनाते!"
धैर्य से सुन बात मेरी
कैक्टस ने कहा धीमे से,
"किसी विवशता से खिलता हूँ,
खुलने की साध तो नहीं है;
जग में अनजाना रह जाना
कोई अपराध तो नहीं है।"
कवि:
"सबसे हटकर अलग
अकेले में बैठ
यह क्या लिखते हो?-
काट-छाँट करते शब्दों की,
सतरों में विठलाते उनको,
लंबी करते, छोटी करते;
आँख कभी उठकर
दिमाग में मँडलाती है,
और फिर कभी झुककर
दिल में डुबकी लेती है;
पल भर में लगता
सब कुछ है भीतर-भीतर-
देश-काल निर्बंध जहाँ पर-
बाहर की दुनिया थोथी है;
क्षण भर में लगता
अंदर सब सूनस-सूना-सूना,
सच तो बाहर ही है-
एक दूसरे लड़ता, मरता, फिर जीता।
अभी लग रहा
कोई ऐसी गाँठ जिसे तुम बहुत दिनों से खोल रहे हो
खुल न रही है;
अभी लग रहा
कोई ऐसी काली
जिसे तुम छू देते हो
खिल पड़ती है।"
"कवि हूँ,
जो सब मौन भोगते-जीते
मैं मखरित करता हूँ।
मेरी उलझन में दुनिया सुलझा करती है-
एक गाँठ
जो बैठ अकेले खोली जाती,
उससे सबकी मन की गाँठें
- खुल जाती हैं;
एक गीत
जो बैठ अकेले गाया जाता,
अपने मन की पाती
- दुनिया दुहराती है।"