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गोरी धूप चढ़ी / कुँअर बेचैन

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(रात)

जाते-जाते दिवस,

रात की पुस्तक खोल गया।

रात कि जिस पर

सुबह-शाम की स्वर्णिम ज़िल्द चढ़ी

गगन-ज्योतिषी ने

तारों की भाषा ख़ूब पढ़ी

आया तिमिर,

शून्य के घट में स्याही घोल गया।


(सुबह)

देख भोर को

नभ-आनन पर छाई फिर लाली

पेड़ों पर बैठे पत्ते

फिर बजा उठे ताली

इतनी सारी-

चिड़ियों वाला पिंजड़ा डोल गया।


(दोपहर) ड्यूटी की पाबंद,

देखकर अपनी भोर-घड़ी

दिन के ऑफ़िस की

सीढ़ी पर गोरी धूप चढ़ी

सूरज- 'बॉस'

शाम तक कुछ 'मैटर' बोल गया।


(शाम) नभ के मेज़पोश पर

जब स्याही-सी बिखरी

शाम हुई

ऑफिस की सीढी

धूप-लली उतरी

तम की भीड़

धूप का स्वर्णिम कंगन मौल गया।

-- यह कविता Dr.Bhawna Kunwar द्वारा कविता कोश में डाली गयी है।