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युगभेद / अजित कुमार

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सुनते हैं पिछले युग में पहाड़ उड़ते थे ।
मैंने सिर्फ़ मक़बरों को चलते देखा है ।
और आज भी मिले बहुत-से ।

हँसकर मुझसे तनिक देर कीं बातें जिसने :
फिर पोंछता पसीना, पैडील मार बढ गया;
बस के लिए राह का अंतिम छोड़ ताकते खड़े रहे जो;
नीची दृष्टि किए : केवल पगडंडी ताकती : बहुत दूर तक,
गुमसुम, मेरे साथ जो चली;

औ’ वह भी : जो एक साँस भर, चारदिवारी को
झिंझोरती बोली होगी-‘आठ बज गए’;

रोज़ शाम को उस खिड़की में जड़ा हुआ-सा
रहता जो मुख,
(कल से अधिक आज था निश्चल) :

ये सब किन्हीं पुरातन प्रासादों के खँडहर ।
आदिम आत्माओं के पिंजर ।
ये मक़बरे न केवल चलते; हँसते, रोते, गाते भी हैं ।
पख कटे-से उड़अते हैं : केवल अतीत में ।

दुनते हैं प्रभु ने उँगली पर उठा लिया था गोवर्धन को ।
उनके अनुचर अब अपने ह्रदयों में क़ब्रें ले चलते हैं ।