चार उपेक्षित-तिरस्कृत कविताएँ / शशिप्रकाश
('विफल कविताएँ', 'अनलिखी कविताएँ' और 'भुला दी गयी कविताएँ' के बाद अब प्रस्तुत हैं, 'चार तिरस्कृत-उपेक्षित कविताएँ! मैं और सत्यम जब का. शशि की 1995 से 2005 तक की कविताओं के दो संकलन -- 'पतझड़ का स्थापत्य' और 'कोहेक़ाफ़ पर संगीत-साधना' तैयार कर रहे थे, तो एकदम अलग तरंग में लिखी गयी, इन चार कविताओं को दूसरे संकलन में स्थान दिया था I लेकिन कवि के आग्रह पर इन्हें निकाल दिया गया ! इत्तेफ़ाक़ से ये कविताएँ काग़ज़-पत्तर के बीच दबी बची रह गयीं ! इन्हें सुधी पाठकों-साथियों के समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ ! आम तौर पर ये कविताएँ शशि की कविताओं से अलग मिजाज़ की हैं और इन्हें पढ़ना भी एक अलग भावबोध तक ले जाता है !)चार उपेक्षित-तिरस्कृत कविताएँ -- शशि प्रकाश 1. चाइना लेमन के बीमार पौधे कोई उदासी, कोई चिंता,या शायद कोई कीड़ा या फिर एकरसता खा रही है उन्हें धीरे-धीरे Iरूठे हुए बच्चे के होठों की तरह गोल मोड़ लिया है उन्होंने अपने पत्तों को Iयह भी हो सकता है कि मिट्टी की ऊपरी परत के नीचे जो ज़हर दबा पड़ा है प्लास्टिक, सीमेंट, कंक्रीट और प्लास्टर ऑफ़ पेरिस का, वही घुल रहा हो इनकी शिराओं में, वही शायद इनकी कोमल जड़ों कोपोषक तत्वों के खजाने तक पहुँचने से रोक रहा हो Iगाँव के स्कूल में कतारबद्ध बैठे कुपोषित बच्चों की तरह लगते हैं चाइना लेमन के बीमार पौधे Iहवा का झोंका आकर इन्हें हिला-डुला जाता है बीच-बीच में, जैसे किसी मज़ेदार बात या किसी प्रिय के आगमन पर थके-थके से मुस्कुराते हैं अस्पताल के बच्चा वार्ड में बीमार बच्चे I2. लकी बैम्बू के पौधे मास्टरजी ने सज़ा सुनाई,कक्षा के पिछले कोने में झटपट जाकर खड़े हो गये Iभय से मानो मुक्ति मिल गयी,दुःख मिट गया फिर जल्दी ही,लाज-शरम भी हवा हो गयी Iआपस में कुछ बातें करते खुसफुस-खुसफुस,फिक-फिक करके हँसते रहते Iउचक-उचककर, हुलस-हुलसकर खिड़की से बाहर तकते हैं ये सुन्दर हरियाले बच्चे I3. सूखते गोल्डन बॉटल ब्रश के पौधे से बगिया के उस कोने में तुम सूख रहे हो जैसे दिल के सूने से कोने में कोई याद सुनहली सूख रही हो Iकिन्तु प्रतीक्षारत हूँ अब भी, आशाओं से पिण्ड छुड़ानासुगम नहीं है Iशायद फिर से,कभी कहीं से, कल्ले फूटें और हरापन वापस लौटे I4. अध्ययन कक्ष के कोने में खड़े डांसिंग बैम्बू से दीवाना-मस्ताना होकर नाच रहे हो लचक-लचककर,मटक-मटककर, वीराने में, काग़ज़-पत्तर और किताबों के सूखे से इस जंगल में Iख़ुशदिल, प्यारे, दोस्त हमारे,या तो तुम भी कुछ खब्ती हो,या फिर इतना छले गए हो, दुःख मिला है इतना ज़्यादा,कि अब अकेलापन ही तुमकोअपना-अपना सा लगता है Iया फिर तुम भी बहुत समय से जूझ रहे थे किसी प्रश्न से उत्तर जिसका अभी मिला है, पढ़ते-लिखते और सोचते सुलझ गयी है कोई गुत्थी,निकल पड़ा है कोई रस्ता,ओ चीनी दार्शनिक महोदय!(या फिर हो तुम विकट कलासाधक जापानी?)**(रचना-समय : पहली तीन कविताएँ -- 16 अक्टूबर 2005 और अंतिम कविता --25 अक्टूबर 2005)