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शहर / कंस्तांतिन कवाफ़ी / असद ज़ैदी

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तुमने कहा : ‘मैं किसी और मुल्क में चला जाऊँगा, पकड़ लूँगा कोई दूसरा किनारा,
जा बसूँगा किसी शहर में, जो इससे बेहतर होगा ।
मैंने यहाँ जो कुछ भी किया उल्टा ही पड़ा
मेरा दिल किसी मुर्दार की तरह यहाँ दबा पड़ा रहता है ।
कब तक इस जगह मेरा दिमाग़ यूँ ही भुरभुराता रहेगा ?
जिस तरफ़ भी मैं मुड़ता हूँ, जिधर भी देखता हूँ,
मुझे दिखाई देते हैं अपनी ज़िन्दगी के स्याह खण्डहर,
जहाँ मैंने गुज़ारे साल-हा साल, बेकार ही, पूरी तरह बरबाद किए ।'

तुम कोई नया मुल्क नहीं ढूँढ़ पाओगे, नहीं मिलेगा तुम्हें कोई और किनारा ।
यह शहर हमेशा तुम्हारे पीछे लगा रहेगा । तुम चलते रहोगे
इन्हीं गलियों में, इन्हीं मुहल्लों में बूढ़े हो जाओगे ।
इन्हीं घरों में होंगे तुम्हारे बाल सफ़ेद ।
तुम जहाँ कहीं भी रहोगे, आख़िर में इसी शहर में पाए जाओगे। कहीं और की उम्मीद छोड़ दो –
तुम्हारे लिए कोई जहाज़ नहीं खड़ा है, कोई सड़क नहीं बनी है ।
तुमने दरअसल यहाँ, इस कोने में, बरबाद करके अपना सारा जीवन
बरबाद कर डाला है उसे दुनिया के हर कोने में ।

(1910)
अँग्रेज़ी से अनुवाद : असद ज़ैदी