बा / ईप्सिता षडंगी / हरेकृष्ण दास
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आँखों से छलकती
प्रशान्ति
मन में
ढेर सारा विद्रोह
पहाड़ से मजबूत
अपने व्यक्तित्व में
समेट लिया कैसे
अपने आप को तुमने
बा !
संसार जानो तो अपना यह देश,
अगर घर समझो तो यह सारा भारत,
बच्चे हैं तो यह सारे जग वाले,
शान्ति के शृंगार से झिलमिल
ओ ! कस्तूरबा !
क्या महात्मा ने अपनाया था तुमसे ही
अहिंसा का मंत्र !
तुम्हारा लिखा हुआ हर एक लफ्ज़
लफ्ज़ ही नहीं ,
थे एक-एक अक्षर
खुद से ही अलग हुए ।
सीखा नहीं था तुमने पढ़ना लिखना ।
मगर अपने जीवन- नाटक में
तु्मने निभाए तरह-तरह के किरदार
जो किसी संलाप की भांति
अनगिनत शून्य और विराम चिन्हों से भरे हुए थे ।
क्या तुम्हें मालूम है, बा !
संघ, आदर्श और आश्रम –
मिट जाते है
उनके प्रवर्तक के मौत से !
तुम्हें क्या दिखाई देता है
कहर का वह भयानक रूप,
धोखेबाज़ी की वह तमाम नौटंकी,
रामराज्य के आड़ में ?
अनगिनत बच्चों की बा हो मगर
सन्तान सुख से कोसों दूर हो तुम !
महात्मा से सूरज के तेज के नीचे
छोटा सा दिया बनकर
बुझती चली गईं दिन-ब-दिन तुम ।
अब जगह जगह पर मूर्तियाँ तुम्हारी
जी करता है देखने को तुम्हारी आँखों में झाँककर –
शायद मिल जाए वहीं
ओस में छुपे अफ़सोस के दो बून्द आँसू ।
ओड़िआ से अनुवाद : हरेकृष्ण दास