दिल्ली के धुर दक्षिण में
अब वामपंथ के डेरे ।
क्रान्ति-ध्वजा फहराती थी
जिनके जलयानों पर
कृपा-दृष्टि उनकी है अब
निर्दय तूफानों पर
जिन पर चाबुक लहराते थे
अब उनके ही चेरे ।
कल तक लाल किताबें थे
दाबे जो बग़लों में
मार्क्स जुगाली करते हैं
अब डिक् के बंगलों में
सत्ता के गलियारों में ही
लगते उनके फेरे ।
खुला ‘गेट’ पच्छिमी हवा अब
आंधी बन कर उतरी
उनकी खल-खल हँसी गूँजती
इनकी उतरी चुनरी
पूंजी तक आवारा हो जब
कौन मूल्य तब घेरे ।