तुम और मैं / श्रीनिवास श्रीकांत
तराशी हुई कंकरीट इमारतों
और नगरीय शोर के बीच
तुम हो मेरे लिये एकमात्र सघन प्रकृति
तुम्हारी आँखों में देखी हैं मैंने
झूलती हुई वकुल टहनियाँ
माँस-मज्जा के वोटरों में
पहाड़, घाटियाँ और ढलानों पर
हवाओं में झूमते जंगल
और तब तुम हो जाती हो
ब्रह्माण्ड के अन्तिम तत्व की परमा
जिससे तुम बनी हो
तुम्हारी घाटियों में बहती हैं वेगवती
अमर द्रव की नदियाँ
गिरते हैं बेशुमार आबशार भी
उभय भावनायें हमारी करते स्पन्दित
सृष्टि की तुम हो आधारशिला
जहाँ से अलग हुए थे हम
आद्या स्त्री
आद्य पुरुष
अरबों साल पहले
जब विश्व था अपौरुषेय
अव्याख्येय
और अनजाना
तुम लहराती हो तो
मेरे आकाश में अब बजता है
झीना-झीना नाद
सुन नहीं पातीं जिसे
मेरी इन्द्रियस्थ श्रुतियाँ
पर तुम हो
अपनी नक्षत्रीय काया से अलग
एक भूमिगत पहचान
और मैं तुम्हारी चित्रमय
बहुरंगी माया में
कंकरीट का
एक तामसिक विडार।