झरा दूध अभी / लीलाधर मंडलोई
कोठा है प्राचीन काठ के संदूक में जीवित
मानो पेड़ की देह में हरी रस भरी साँस लेता
उससे टिकाकर पीठ पर बैठी एक लड़की
पुरानी साड़ी की तहों में डूबती कि
अबंधी साड़ी में ख़ुद को दादी की जगह निहारती
कनस्तर में रखे गर्म आटे की सुंगध
कच्चे गेहूँ की बालियों को चूमता किसान
एक कसे हुए जिस्म में हँसता अधेड़
कि पढ़ा जाता उसने तूतनखानम के कद्दावर अर्दली का क़िस्सा
एक डेढ़ेक साल का बच्चा मचलता पेड़ से लटकते झूले पर
कि तगाड़ी उठाती माँ के स्तनों से झरा दूध अभी
थोड़े नजीक में एक और तैयार होता लड़का
ताँगे में घोड़े की रास थामे पुकारता अब्बू को
कितनी तहों के नीचे अंधेरों में डूबी रोशनी
रोज़ की टूट-फूट में बचा कितना कुछ
ध्वंस के मुहाने पर कमाल कितना
एक परिंदा फूल-सी हँसी लिए डोल रहा