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आना / केदारनाथ सिंह

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रचनाकार: केदारनाथ सिंह

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आना

जब समय मिले

जब समय न मिले

तब भी आना


आना

जैसे हाथों में

आता है जांगर

जैसे धमनियों में

आता है रक्त

जैसे चूल्हों में

धीरे-धीरे आती है आंच

आना


आना जैसे बारिश के बाद

बबूल में आ जाते हैं

नए-नए कांटे


दिनों को

चीरते-फाड़ते

और वादों की धज्जियां उड़ाते हुए

आना


आना जैसे मंगल के बाद

चला आता है बुध

आना


'अकाल में सारस' नामक कविता-संग्रह से