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इस ख़ौफ़नाक दौर में / सरोज परमार
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अक्सर लोग फूलों का गीत गुनगुनाते
बँट जाते हैं पैने ख़ंजर
थपथपाते हैं मेज़ें
पीटते हैं थालियाँ
खीसें निपोरते
लगाते हैं कहीं सेंध भी.
ब्रीफ़केसों में बन्द
अस्मत, किस्मत, ताक़त
दलालों के रगड़े में
पूरा समाज.
बातें हैं समझौते की
फ़स्लें उगाते लाशों की
मिसाइल की नोक पर
बाँध इन्सानियत को
उगलवाते हैं अमन-चैन,सुकून
इस दुरभिसन्धियों के ख़ौफ़नाक दौर में
कहाँ है मुकम्मल सुख?
तुम्हीं बताओ
किन भरोसेमन्द हाथों में
सौंप दूँ अपनी नन्हीं बुलबुल.