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घुड़सवार / स्वप्निल श्रीवास्तव
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मैं अपनी यातना में हो गया हूँ गूंगा
कि तुम्हारे सामने असंभव हो गया है मेरा बोलना
तुम मुस्कराते हुए मेरे अन्दर
खंजर की तरह उतर जाते हो
मेरी बुनियाद काटते हुए
तकलीफ़ों के बीच पौधे-सा बढ़ते हुए
सुबह-सा हँसते हुए मैंने जाना कि
मैं बेहतर घुड़सवार हो सकता हूँ
पथरीली ज़मीन पर मेरे पाँव
घोड़े से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ सकते हैं
मेरी चीखों से पर्वतों में पड़ सकती है दरार
सन्नाटे की पीठ पर अगर बरसाए जाएँ कोड़े
तो दहल सकती है काली रात
दिन थोड़ा और करीब आ सकता है
रात के खिलाफ़ आख़िरी साँस तक
जलता हुआ दिया सूरज से भी बड़ा है
और उसकी हिम्मत चट्टान से ज़्यादा सख़्त होती है