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गुलाल / सीमा सोनी

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होलिका में नहिं जलाते
अब हम अपनी बुराइयाँ
नहीं डालते कंडे...

कोई बच्चा
रंगभरी पिचकारी मारता है हम पर
तो किनारे हो जाते हैं हम
कोई परिचित गुलाल उड़ाता है
तो ढक लेते हैं अपना मुँह...

होली के दिन अब नहीं पहनते
हम शक्कर की माला
नीले हो गए हैं हमारे कंठ
समय के हलाहल से...

रिश्तो में कम होती जा रही है चीनी
और बढ़ता जा रहा है नमक
ऎसे में कैसे लगाऊँ
तुम्हारे गालों पर गुलाल...!