Last modified on 10 फ़रवरी 2009, at 19:34

प्लेटफ़ार्म पर अर्द्धनिद्रा / मधुप कुमार

गंगाराम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:34, 10 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधुप कुमार }} <Poem> सड़कें वैसी ही हो चली हैं क़तार...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सड़कें वैसी ही
हो चली हैं

क़तारबद्ध मुसाफ़िर अपने-अपने हिसाब से जगह
छोड़कर सोए हुए हैं

और वह भी सोई हुई है मैंने उसे धीरे
से जगाकर कहा- मटमैली किरणें बिखर रही हैं
अपने हिस्से की सुबह चुपके
से समेट लो

और देखो सड़क के भीतर फ़ैला आकाश
कितना मुलायम हो गया है
जिसमेंतारे खोज रहे हैं अपनी मासूमियत
अन्तरिक्ष तक उठने से पहले आकाशगंगा की लहर
सिहर रही है चेतना की परिधि पर

सचमुच कितना अद्भुत है यह दृश्य
कि सड़कों की नींद में सोए मुसाफ़िर उठते जा रहे हैं

कि अन्तरिक्ष में लटका हुआ चन्द्रमा
मुसाफ़िर की नींद में वैसा ही हो चला है जैसी
हो चली है सड़क।