दोहे / चंद्रसेन विराट
पहुंचे पूरे जोश से, ज्यों आंधी तूफान चाँदी का जूता पड़ा, तो सिल गई ज़ुबान
सबने अपनी काटकर, सौंपी उन्हें जुबान सिध्द हुए वे सहन में, कितने मूक महान
सभी जगह पर हैं गलत, लोग अयोग अपात्र क्यों न व्यवस्था हो लचर, एक दिखावा मात्र
जो जिसके उपयुक्त है, वही नहीं उस स्थान होना तो था फायदा, हुआ मगर नुकसान
चुनने में देखा नहीं, तुमने पात्र, अपात्र उनको प्राध्यापन दिया, जो कि स्वयं थे छात्र
खास स्थान पर खास को, मिला नहीं पद भार सिंफारिशों ने कर दिया, सब कुछ बंटाढार
ज्यादा अपनी जान से, मुझको रही आज़ीज तुम कहो तो कहो उसे, मैं न कहूँगा चीज़
पक्षपात बादल करे, वितरण में व्याघात मरुथल सूखा रख करे, सागर पर बरसात
इन ऑंखों के सिंधु में, मन के बहुत समीप जो अनदेखे रह गये, हैं कुछ ऐसे द्वीप
माना ज्यादा हैं बुरे, अच्छे कम किरदार उन अच्छों की वजह से, अच्छा है संसार
बनी लिफांफा जीविका, मंच, प्राण की वायु वहीं वहीं गाते फिरे, और काट ली आयु
गलत आकलन हो गया, हम समझे थे क्षुद्र सिध्द स्वयं को कर गये, वे कर तांडव रुद्र
मृत्यु-पत्र में क्या लिखूँ, मैं क्या करुं प्रदान ले देकर कुछ पुस्तकें, पुरस्कार, सम्मान
बस्ती के हित में बना, था पहले बाज़ार अभी बस्ती को खा रहा, उसका अति विस्तार
दोनों पक्षों का नहीं, सध पाता है हेतु आपस में संवाद का, टूट गया है सेतु
कवि तो कवि है प्राकृतिक, रचनाकार प्रधान कोई आवश्यक नहीं, कवि भी हो विद्वान
गलत वकालत मत करो, दो मत झूठे तर्क झूठ, झूठ है, सत्य को, नहीं पड़ेगा फर्क
अवसर दोगे दुष्ट को, क्यों न करेगा छेड़ खा जाएगा भेड़िया, बने रहे यदि भेड़
मिलता है व्यक्तित्व को, वैसा रुपाकार जैसा होता व्यक्ति का, निज आचार-विचार
धनबल उस पर बाहुबल, तंत्र हुआ लाचार दोनों बल के बल लिया, जनबल का आधार
धरने, अनशन, रैलियाँ, ये हड़तालें, बंद प्रजातंत्र का देश में, है इकबाल बुलंद
कोयल, मैना, बुलबुलें, सारे सुर से मूक 'पॉप' सिखाता है उन्हें, देखो एक उलूक