भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम न आये एक दिन / ज़फ़र
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:50, 6 फ़रवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बहादुर शाह ज़फ़र |संग्रह= }} तुम न आये एक दिन का वादा कर ...)
तुम न आये एक दिन का वादा कर दो दिन तलक
हम पड़े तड़पा किये दो दो पहर दो दिन तलक
दर्द-ए-दिल अपना सुनाता हूँ कभी जो एक दिन
रहता है उस नाज़नीं को दर्द-ए-सर दो दिन तलक
देखते हैं ख़्वाब में जिस दिन किसू की चश्म-ए-मस्त
रहते हैं हम दो जहाँ से बेख़बर दो दिन तलक
गर यक़ीं हो ये हमें आयेगा तू दो दिन के बाद
तो जियें हम और इस उम्मीद पर दो दिन तलक
क्या सबब क्या वास्ता क्या काम था बतलाइये
घर से जो निकले न अपने तुम "ज़फ़र" दो दिन तलक