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पांच और शेर / फ़ानी बदायूनी

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बहार लाई है पैग़ामे-इनक़लाबे-बहार।

समझ रहा हूँ मैं कलियों के मुसकराने को॥


काफ़िर सूरत देख के मुँह से आह निकल ही जाती है।

कहते क्या हो? अब कोई अल्लाह का यूँ भी नाम न लें॥


गो नहीं जुज़-तर्के-हसरत<ref>अभिलाषाओं के त्याग के अतिरिक्त</ref> दर्दे-हस्ती का<ref>जीवन व्यथा का</ref> इलाज।

आह! वो बीमार जो आज़ुर्द-ए-परहेज़<ref>परहेज़ करते करते दुखी</ref> है॥


अहले-ख़िरद में<ref>अक़्लमंदों में</ref> इश्क़ की रुसवाइयाँ न पूछ।

आने लगी है ज़िक्रे-वफ़ा से हया मुझे॥


यारब! नवाये-दिल से<ref>दिल की आवाज़ से</ref> तो कान आशना-से<ref>परिचित से</ref> हैं।

आवाज़ आ रही है ये कब की सुनी हुई॥


शब्दार्थ
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