भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नहीं निहारा / रमेश कौशिक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:05, 22 जुलाई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश कौशिक |संग्रह=चाहते तो... / रमेश कौशिक }} <poem> जो ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जो कुछ भी घटा है
या
घटता जा रहा है
उस सबके पीछे
कहीं न कहीं
मेरा हाथ रहा है
लेकिन इसको मैंने
कभी नहीं
स्वीकारा

क्योंकि
मेरे हाथों ने
जो कुछ किया
उसे कभी
मेरी आँखों ने
नहीं निहारा