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तुम्हारे शहर में / प्रेमचन्द गांधी

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जब भी इस शहर में दाखिल होता हूँ
तुम्हारी याद आती है
वो तुम्हारा मोरपंखी नीला सूट
आँखों के आगे आसमान की तरह छा जाता है

वो दिन अब भी याद आते हैं
जब तुम्हारी मुस्कान में
चाँद का अक्स चमकता था
और हमारी बातों में परिन्दों का गान सुनाई देता था

वो तुम्हारा हरा कढ़ाईदार सूट
एक सरसब्ज बागीचा था
जो तुम्हारी देह-धरा को अलौकिक बनाता था

जब तुम झिड़कती थीं मुझे
मैं बच्चा हो जाता था
और तुम्हारी नाराज़गी पर
बुजुर्ग बनना पड़ता था मुझे

वो दिन अब नहीं लौटेंगे मम्मो
लेकिन मैं हूँ कि
बार-बार लौट आता हूँ इस शहर में
पता नहीं अब हम कभी मिलें न मिलें
पता नहीं इस विशाल शहर के किस कोने-अन्तरे में
तुम सम्भाल रही होंगी अपना घर
और एक मैं हूँ कि
हर फुरसत में सड़कों पर
खोजता फिरता हूँ
वही मोरपंखी नीला और हरा कढ़ाईदार सूट 