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जन्‍मभूमि / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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लेखक: अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

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सुरसरि सी सरि है कहाँ मेरू सुमेर समान।

जन्मभूमि सी भू नहीं भूमण्डल में आन।।


प्रतिदिन पूजें भाव से चढ़ा भक्ति के फूल।

नहीं जन्म भर हम सके जन्मभूमि को भूल।।


पग सेवा है जननि की जनजीवन का सार।

मिले राजपद भी रहे जन्मभूमि रज प्यार।।


आजीवन उसको गिनें सकल अवनि सिंह मौर।

जन्मभूमि जल जात के बने रहे जन भौंर।।


कौन नहीं है पूजता कर गौरव गुण गान।

जननी जननी जनक की जन्मभूमि को जान।।


उपजाती है फूल फल जन्मभूमि की खेह।

सुख संचन रत छवि सदन ये कंचन सी देह।।


उसके हित में ही लगे हैं जिससे वह जात।

जन्म सफल हो वार कर जन्मभूमि पर गात।।


योगी बन उसके लिये हम साधे सब योग।

सब भोगों से हैं भले जन्मभूमि के भोग।।


फलद कल्पतरू–तुल्य हैं सारे विटप बबूल।

हरि–पद–रज सी पूत है जन्म धरा की धूल।।


जन्मभूमि में हैं सकल सुख सुषमा समवेत।

अनुपम रत्न समेत हैं मानव रत्न निकेत।।