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शिलालेख / मनोज कुमार झा

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बिना पैसे के दिनों और

बिना नींद की रातों की स्‍वरलिपियॉं

खुदी हैं आत्‍मा पर।


बने हैं निशान

जैसे फोंकियॉं छोडकर जाती हैं

पपीते के पेडों के हवाले।


फोंफियों की बांसुरियॉं

महकती हैं चंद सुरों तक

और फिर चटख जाती हैं।


दूर-दुर के बटोही

रोकते हैं कदम

इन सुरों की छॉंह में


पोंछते हैं भीगी कोर

और बढ जाते हैं नून-तेल-लकडी की तरफ।