’अभी और है कितनी दूर तुम्हारा प्यारा देश?’--
कभी पूछता हूँ तो तुम हँसती हो
प्रिय, सँभालती हुई कपोलों पर के कुंचित केश!
मुझे चढ़ाया बाँह पकड़ अपनी सुन्दर नौका पर,
फिर समझ न पाया, मधुर सुनाया कैसा वह संगीत
सहज-कमनीय-कण्ठ से गाकर!
मिलन-मुखर उस सोने के संगीत राज्य में
मैं विहार करता था,--
मेरा जीवन-श्रम हरता था;
मीठी थपकी क्षुब्ध हृदय में तान-तरंग लगाती
मुझे गोद पर ललित कल्पना की वह कभी झुलाती,
कभी जगाती;
जगकर पूछा, कहो कहाँ मैं आया?
हँसते हुए दूसरा ही गाना तब तुमने गाया!
भला बताओ क्यों केवल हँसती हो?--
क्यों गाती हो?
(२)