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कृतघ्न / सियाराम शरण गुप्त

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इन विटपवरों ने हे मरूत् ! मोदकरी, सुरभि सतत देके की सु-सेवा तुम्हारी ! व्यथित अब इन्हीं के वह्नि से आज देख ज्वलित कर रहे हो और भी क्यों विशेष।