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तुम्हारी खोज में / अजित कुमार

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तमाम लोगों के बीच

मैं तुम्हें खोजता हू।

जाते हुओं में और

आते हुओं में,

हँसते, चुप बैठे, रोते,

गाते हुओं में

केवल तुम्हें खोजता हूँ ।

किन्तु कैसी विवशता है कि

सब में

मैंने

केवल अपने को पाया है ।

भीड़ों में धँसकर

या बाँहों में कसकर,

उठकर या गिरकर,

चलते-चलते रुककर

लोग …

उनकी विवशता थी कि

मेरी ही तरह

वे भी तुम्हें खोजते थे ।

अरे । उन सब में

मैने

तुम्हें नहीं,

बार-बार अपने को पाया है ।