एक विदेशी कविता / अजित कुमार
सुनिए जी ।
आपको मिनट दो मिनट की फ़ुर्सत तो होगी ही,
रुकिए, न हो तो एक कविता सुन जाइए,
जाने क्यों आज है उमड़-घुमड़ रहा-
भाव यह शायद एक रूसी कविता का है,
संभव है फ़्रैंच या किसी अन्य भाषा का हो,
मैंने तो इसे अंग्रेज़ी में पढा था...
यों भी हम लोग इसी माध्यम से सारा विश्व-साहित्य पढते हैं।
देता हूँ ज़ोर मैं काफ़ी दिमाग पर,
लेकिन कवि का नाम स्मरण ही नहीं आता,
कुछ शापाँ, या सिडनी, या जाने वह क्या था-
इन लोगों के नाम कुछ अटपटे होते ही हैं,
कोशिश कीजिए हज़ार, दिमाग में ठहरते ही नहीं।
ख़ैर, जी...
हमारे यहाँ की पुरानी उक्ति है :
मतलब आम खाने से या पेड़ों को गिनने से,
आप यह भाव सुनें, देखें कितना ऊँचा है :
"आसमान से शाम बरफ़ की तरह गिर रही है,
वैसी ही शीतल, निस्तब्ध और भावपूर्ण ।
अन्तर केवल इतना है
कि धरती पर छानेवाली बरफ़
मरियम की पवित्रता की भाँति धवल है,
और फ़्लैटों, बंगलों, बिल्डिंगों में बसनेवाली संध्या है-
शैतान के अन्तर में स्थित कलुषता की भाँति काली।
दूर या निकट कहीं भी पक्षियों के गीत नहीं गूँजते,
चीन की एक कहानी है कि-
नक़ली बुलबुल जब चहकने लगा तो
असली बुलबुल चुप हो गया ।
तभी तो गिर्जाघरों में मंद-मधुर घंटियाँ बज रही हैं।
आज रविवार तो है नहीं, आख़िर बात क्या है ?
कहीं सृष्टि का अंतिम दिन-
न्याय का दिवस तो नहीं आ पहुँचा ।
बहुत ख़ूब, कैसी अनहोनी सपनों की-सी बात है…
ईश्वर और उनका बेटा और उनके दूत और प्रतिनिधि
कौन जानता है, कहाँ सो रहे हैं ।
न्याय का दिन आने में शताब्दियों की देर है ।
अरे, किसने अभी कहा कि-
'ईश्वर के बूते कुछ हो नहीं सकता ,
अब तो धरती पर बसने वाली लाखों-करोड़ों किरनें ही
न्याय का दिन लाएंगी ।'...
अरे, श्रीमान जी,
अभी-अभी सुना आपने एक गान, जी ।
आप समझते हैं, यह कविता अंग्रेज़ की है,
रूप-रंग-बुद्धि सभी में किसी तेज़ की है,
तभी तो हो गये आप इस क़दर बदहवास,
भूल गई सिट्टी, सब बिसर गया आसपास,
गई झपक पलकें, और सिर लगा झूमने,
कहेंगे अभी 'फिर-फिर', उठेंगे क़लम चूमने...
अब मैं बता ही दूँ , आपसे छिपाना क्या ।
यों भी गुप्त रखने से ही आना-जाना क्या ।
यह तो ख़ुद मेरी ही अपनी कविता है,
यही अकिंचन इसका सृष्टा है, पिता है ।
भाव और भाषा और शब्द सब मेरे हैं,
मेरे तन-मन को सब ओर से घेरे हैं …
कहिएगा नहीं, आपको कैसा धोखा दिया ।