नहीं कभी जागे ऊषा की स्वर्णिम वेला में
- -नींद हमारी खुली हमेशा आठ बजे ।
नहीं कभी घूमे उपवन में, नदियों के तट पर
- -शामें बीतीं बहसें करते या लिखते-पढते ।
तितली के रंगों को हमने देखा नहीं कभी,
- कोयल में, बुलबुल में कोई फ़र्क न कर पाये ।
चातक और पपीहे के स्वर कानों में न पड़े
- -स्वर भी, हम भी : सँकरी गलियों में भूले-भटके ।
जाना नहीं कि सरसों का रंग कैसा होता है,
- -जब बसंत आया : हम जैसे अन्धे बने रहे ।
सावन में फ़ुरसत ही पाई नहीं मिनट भर की
- -घर की सीलन, छत की टपकन ने उलझा रक्खा ।
सचमुच हम थे कितने झूठे, कैसे धोखेबाज ।
कहते फिरे हमेंशा जो सबसे-
'हमें बहुत प्रिय है सौन्दर्य ।
सुन्दरता के लिए हमारा जीवन अर्पित है ।'
'हम कुरूपता को धरती पर देख नहीं सकते,
हम सुन्दरता के प्रेमी हैं ।'-
- ऐसा कहनेवाले हम थे कितने झूठे, कैसे धोखेबाज़।