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कभी पहले भी / अजित कुमार

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सूनी सांझ, रंगी पगडंडी,

डूबा-डूबा-सा सूरज,

सभी दूसरे पेड़ों से कुछ अलग नीम

ऊंची-तिरछी…


अरे, यहां तो

पहले भी मैं आया हूं ।


यही साँझ, ये ही पगडंडी,

यही सूर्य, यह वृक्ष अकेला …


मुझको यह स कितना परिचित,

निश्चय ही मैं यहां कभी पहले भी आया हूं ।

ठीक यहीं पर, इसी डगर पर,

इसी अकेले वृक्ष तले

आया हूं ।


पहले कभी, इसी जीवन में, पहले कभी,

यहां निश्चय ही आया हूं ।