भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जीवन / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Sumitkumar kataria (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 09:53, 17 मार्च 2008 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चाबुक खाए

भागा जाता

सागर-तीरे

मुँह लटकाए

मानो धरे लकीर

जमे खारे झागों की—

रिरियाता कुत्ता यह

पूँछ लड़खड़ाती टांगों के बीच दबाए।


कटा हुआ

जाने-पहचाने सब कुछ से

इस सूखी तपती रेती के विस्तार से,

और अजाने-अनपहचाने सब से

दुर्गम, निर्मम, अन्तहीन

उस ठण्डे पारावार से!