वे रात भर अन्त की
प्रतीक्षा करते रहे जो
घुप्प आकाश के एक अदृश्य
कोने में पड़ा
सोता रहा रात भर
उसने मुझे कन्धे हिलाकर
जगाया, बोली धीरे से
मेरे पंख ! मेरे पंख !!
नींद में चलते मैंने वे
चुपचाप उसके हाथों में रख दिए
जैसे वह उन हाथों से
गुसलख़ाने से भूले हुए
कपड़े माँग रही हो, धीरे से