{{KKRachna । रचनाकार=हरीशचन्द्र पाण्डे }}
खून को अपना रंग दिया है बुरूंश ने
बुरूंश ने सिखाया है
फेफड़ों में भरपूर हवा भरकर
कैसे हंसा जाता है
कैसे लड़ा जाता है ऊंचाई की हदों पर
ठंडे मौसम के विरुदद्य
एक बुरूंश कही खिलता है
खबर पूरे जंगल में आग की तरह फैल जाती है
आ गया है बुरूंश
पेड़ों में अलख जगा रहा है
कोटरों में बीज बो रहा है पराक्रम के
बुरूंश आ गया है
जंगल में एक नया मौसम आ रहा है