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सूरज / अनिल जनविजय

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सूरज
लाल सुर्ख़ सूरज
नन्हा, ख़ामोश, कुपित सूरज
दहक रहा है धीरे-धीरे
अब जिस्म पर नहीं ठहरता
रक्त में घुल रहा है

सूरज
स्थिर नहीं है
नरक के बाड़े में घूम रहा है
चक्कर काट रहा है बन्दूक के
एक स्थिति से गुज़र रहा है सूरज

सूरज
क़िताब पढ़ रहा है
एक लम्बा भूमिगत इतिहास
यातना के भयानक सब क्षणॊं को
मन ही मन फिर गढ़ रहा है

सूरज
चीख़ नहीं रहा है
चुप भी नहीं है वह
आक्रमणकारी मुद्रा में सीधा तना खड़ा है
अपनी पहचान कर रहा है
तमाम लोगों के भीतर बढ़ रहा है सूरज