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वृक्ष और वल्लरी / माखनलाल चतुर्वेदी

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वृक्ष, वल्लरि के गले मत—
मिल, कि सिर चढ़ जायगी यह,
और तेरी मित भुजाओं—
पर अमित हो छायगी यह।

हरी-सी, मनभरी-सी, मत—
जान, रुख लख, राह लख तू
मधुर तेरे पुष्प-दल हों,
कटु स्वफल लटकायगी यह।

भूल है, पागल, गिरी तो
यह न चरणों पर रहेगी
निकट के नव वृक्ष पर,
नव रंगिणी बल खायगी यह।

वृक्ष, तेरे शीश पर के
वृक्ष से लाचार है तू?
किन्तु तेरे शीश से, उस
शीश पर भी जायगी यह।

यह समर्पण-ऋण चुकाना—
दूर, मानेगी न छन भर
तव चरण से खींच कर—
रस और को मँहकायगी यह।

मत कहो इसको अभागिन,
यह कभी न सुहाग खोती,
लिपटना इसकी विवशता—
है लिपटती जायगी यह।

बस निकट भर ही पड़े
कि न बेर या कि बबूल देखे
आम्र छोड़ करील पर
आगे बढ़ी ही जायगी यह।

तू झुका दे डालियाँ चढ़ पाय
फिर क्यों शीश पर यह;
फलित अरमानों भरी
तेरे चरण आजायगी यह।

फेंक दे तू भूमि पर सब
फूल अपने और इसके
हुआ कृष्णार्पण कि तेरी
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