वीर सा, गंभीर-सा है यह खड़ा,
धीर होकर यों अड़ा मैदान में,
देखता हूँ मैं जिसे तन-दान में,
जन-दान में, सानंद जीवन-दान में।
हट रहा है दंभ आदर-प्यार से,
बढ़ रहा जो आप अपनों के लिए,
डट रहा है जो प्रहारों के लिए,
विश्व की भरपूर मारों के लिए।
देवताओं को यहाँ पर बलि करो
दानवों का छोड़ दो सब दु:ख भय;
"कौन है?" यह है महान मनुष्य़ता
और, है संसार का सच्चा हृदय।
क्यों पड़ीं परतंत्रता की बेड़ियाँ?
दासता की हाय हथकड़ियाँ पड़ीं
न्याय के मुँह बन्द फाँसी के लिए,--
कंठ पर जंजीर की लड़ियाँ पड़ीं।
दास्य-भावों के हलाहल से हरे!
भर रहा प्यारा हमारा देश क्यों?
यह पिशाची उच्च-शिक्षा-सर्पिणी
कर रही वर वीरता निःशेष क्यों?
रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४