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किताब / मोहन राणा
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रुकते अटकते कभी
थक कर खो जाते अपनी ही उम्मीदों में
निराशा को पढ़ते हुए सुबह की डाक में
पूरी हो गई एक क़िताब
किसी अंत से शुरू होती
किसी आरंभ पर रुक जाती
पूरी हो गई एक क़िताब
आकाश गंगा में एक
बूंद पृथ्वी
भटकते अंधकार में
17.9.2004