भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सो जाओ / मिक्लोश रादनोती
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:15, 29 दिसम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=मिक्लोश रादनोती |संग्रह= }} Category:हंगारी भाषा <P…)
|
वे हमेशा कहीं न कहीं हत्या करते हैं
घाटी की गोद में, जिसकी पलकें मुंदी रहती हैं,
या खोजती हुई पर्वतों की चोटियों पर,
कहीं भी, और मुझे यह कह कर ढाढ़स बंधाने का
कोई मतलब नहीं है कि वह सब मुझसे बहुत दूर हो रहा है।
शंघाई या गुएर्निका
मेरे दिल के ठीक उतने ही पास हैं
जितना तुम्हारा थरथराता हाथ
या वहाँ ऊपर आकाश में कहीं बृहस्पति।
अभी आकाश की तरफ़ मत देखो।
और धरती की तरफ़ भी नहीं--सिर्फ़ सोओ।
मौत अभी चिंगारी फेंकती हुई आकाशगंगा
की धूल में दौड़ रही है और
गिरते हुए बदहवास सायों को
अपने रुपहली छिडकाव से भिगो रही है।
रचनाकाल : 2 नवम्बर 1937
अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु खरे