विचित्र / जूझते हुए / महेन्द्र भटनागर

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यह कितना अजीब है !
आज़ादी के
तीन-तीन दशक
बीत जाने के बाद भी
पाँच-पाँच पंचवर्षीय योजनाओं के
रीत जाने के बाद भी
मेरे देश का
आम आदमी ग़रीब है !
बेहद ग़रीब है !
यह कितना अजीब है !

सर्वत्र
धन का, पद का, पशु का
साम्राज्य है,
यह कैसा स्वराज्य है ?

धन, पद, पशु
भारत-भाग्य-विधाता हैं,
चारों दिशाओं में
उन्हीं का जय-जयकार,
उन्हीं का अहंकार
व्याप्त है,
परिव्याप्त है,
और सब-कुछ समाप्त है !

शासन
अंधा है, बहरा है,
जन-जन का संकट गहरा है !

(खोटा नसीब है !)

लगता है —
परिवर्तन दूर नहीं,

क़रीब है !

किन्तु आज
यह सब

कितना अजीब है !

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