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आगे गहन अँधेरा है / नेमिचन्द्र जैन

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आगे गहन अन्धेरा है, मन रुक-रुक जाता है एकाकी

अब भी है टूटे प्राणों में किस छबि का आकर्षण बाक़ी

चाह रहा है अब भी यह पापी दिल पीछे को मुड़ जाना

एक बार फिर से दो नैनों के नीलम नभ में उड़ जाना

मन में गूँज रहे हैं अब भी वे पिछले स्वर सम्मोहन के

अनजाने ही खींच रहे हैं धागे भूले-से बन्धन के

किन्तु अन्धेरा है यह, मैं हूँ, मुझ को तो है आगे जाना

जाना ही है--पहन लिया है मैंने मुसाफ़िरी का बाना

आज मार्ग में मेरे अटक न जाओ यों ओ सुधि की छलना

मैं निस्सीम डगर का राही मुझ को सदा अकेले चलना

इस दुर्भेद्य अन्धेरे के उस पार बसा है मन का आलम

रुक न जाए सुधि के बांधों से प्राणों की यमुना का संगम

खो न जाए द्रुत से द्रुततर बहते रहने की साध निरन्तर

मेरे-उस के बीच कहीं रुकने से बढ़ न जाए यह अन्तर ।


(1940 में बरुआसागर में रचित)