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हे मेरे स्वदेश! / रामधारी सिंह "दिनकर"

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छिप जाऊँ कहाँ तुम्हें लेकर?
इस विष का क्या उपचार करूँ?
प्यारे स्वदेश! खाली आऊँ?
या हाथों में तलवार धरूँ?

पर, हाय, गीत के खड्ग!
धार उनकी भी आज नहीं चलती,
जानती जहर का जो उतार,
मुझ में वह शिखा नहीं जलती।

विश्वास काँपता है रह-रह,
चेतना न थिर रह पाती है!
लपटों में सपनों को समेट
यह वायु उड़ाये जाती है।

चीखूँ किस का ले नाम? कहीं
अपना कोई तो पास नहीं;
धरती यह आज नहीं अपनी,
अपना लगता आकाश नहीं।

बाहर है धुँआ कराल, गरल का
भीतर स्रोत उबलता है,
यह हविस् नहीं, है विघ्न-पिण्ड
जो आज कुण्ड में जलता है।

भीतर-बाहर, सब ठौर गरल,
देवता! कहाँ ले जाऊँ मैं?
इस पूति-गन्ध, इस कुटिल दाह
से तुम को कहाँ छिपाऊँ मैं?