भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काशी साधे नहीं सध रही / नईम
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:50, 13 अप्रैल 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम }} <poem> काशी साधे नहीं सध रही चलो कबीरा! मगहर सा...)
काशी साधे नहीं सध रही
चलो कबीरा!
मगहर साधें
सौदा-सुलुफ कर किया हो तो
उठकर अपनी
गठरी बांधें
इस बस्ती के बाशिंदे हम
लेकिन सबके सब अनिवासी,
फिर चाहे राजे-रानी हों -
या हो कोई दासी,
कै दिन की लकड़ी की हांडी?
क्योंकर इसमें खिचड़ी रांधें
राजे बेईमान
बजीरा बेपेंदी के लोटे,
छाये हुये चलन में सिक्के
बड़े ठाठ से खोटे
ठगी, पिंडारी के मारे सब
सौदागर हो गये हताहत
चलो कबीरा!
काशी साधे नहीं सध रही,
तब मगहर ही साधें