आवाज़ एक पुल है
अनेक बार
चाहते हुए भी
मैं सहमत नहीं हो पता
उस से
मंतव्य अपने
समझा भी नहीं पता
एक शून्य फ़ैल जाता है
बीच में
तब
उससे करता हूँ उम्मीद
कि वह मरम्मत करे
दरकते हुए पुल की
आवाज़ दे मुझे
क्योंकि आवाज़ एक पुल है
पर किसी रहस्यमयी
ठण्ड की वजह से
जो हमारे भीतर कहीं
गहराई में बस्ती है
आवाज़ तब बर्फ हो जाती है
जब महकना चाहिए उसे
काफी की खुशबू की तरह
संवादहीनता के ठन्डे स्पर्श से
अपनापन तिडकने लगता है
कांच की तरह
तब
ध्रुवों से सर्द बियावान
अकेलेपन से घबराकर
मैं
असहमति को
उसकी विशिष्टता
मान लेने को
सहमत हो जाता हूँ.