Last modified on 3 सितम्बर 2008, at 01:50

सितारों से उलझता जा रहा हूँ / फ़िराक़ गोरखपुरी

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:50, 3 सितम्बर 2008 का अवतरण

सितारों से उलझता जा रहा हूँ
शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूँ

तेरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ
जहाँ को भी समझा रहा हूँ

यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है
गुमाँ ये है कि धोखे खा रहा हूँ

अगर मुम्किन हो ले ले अपनी आहट
ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ

हदें हुस्न-ओ-इश्क़ की मिलाकर
क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ

ख़बर है तुझको ऐ ज़ब्त-ए-मुहब्बत
तेरे हाथों में लुटता जा रहा हूँ

असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे कायल भी करता जा रहा हूँ

भरम तेरे सितम का खुल चुका है
मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ

तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूँ

जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ

मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ

ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप
"फ़िराक़" अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ