भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चालीस पार प्रेम-1 / कुमार सुरेश
Kavita Kosh से
Ganesh Kumar Mishra (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:00, 2 मार्च 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: चालीस पार प्रेम <poem>समय के हस्ताक्षर चेहरे कि रेखाओं में दिखने ल…)
समय के हस्ताक्षर
चेहरे कि रेखाओं में दिखने लगे हैं लेकिन
प्रेम के हस्ताक्षर वही हैं चिरपरिचित
वही लड़कपन-सी हुलस और बेकरारी
लौट आई है
रोमांच यह कोरा ही है
नए प्रेम में खुल रहे हो तुम
मूल तक
वही संकोच और रोमांच
वही नशा फिर से
कहते हो तुम
प्रेम क्या किसी एक
का पर्यायवाची हो सकता है
एक व्यक्ति से काम कि तुष्टि हो जाए
पर प्रेम
वह तो जब विस्तृत होता है
सारा संसार उसमें समां सकता है
यह समय है
प्रेम कि पीड़ा को जानने का
आग के दरिया से तैर जाने का
प्रेम कि आरी से तराशे जाकर हीरा बनाने का
प्रेम तो गहना है
यह गहना फबता भी खूब है
मेरे दोस्त !
इतना कि आदमी हर बार नया हो जाता है.