भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ओ पृथ्वी-2 / एकांत श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
Pradeep Jilwane (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:07, 30 अप्रैल 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: अपनी धुरी के साथ-साथ<br /> घूमती हमारी नींद में भी<br /> अजस्ञ सपनों से …)
अपनी धुरी के साथ-साथ
घूमती हमारी नींद में भी
अजस्ञ सपनों से भरी ओ पृथ्वी
मुझे दे आज यह वचन
कि मुझमें तू रहे शताब्दियों तक
हवा, धूप और संगीत की तरह
मैं रहूं तेरे झरनों की गुनगुनाहट
और उसके जल की मिठास में
तेरे पतझड़ का एक पत्ता
तेरे वसन्त का एक पलाश
और लाखों-लाख बरस की तेरी उम्र में
एक दिन का प्रकाश
तेरे खेतों की बालियों का
एक अदद दाना मैं रहूं
जो लुढ़क रहा हो
पक्षियों की नींद में
जब घिर आये
थकान और अंधकार से भरी सांझ
उड़ने लगे पराजय की धूल और पत्ते
सिर टिकाने को मिले
हमें तेरा ही कंधा
ऊर्जा दे में ओ पृथ्वी
कि हम चुकायें
बरसों-बरसों का बकाया
तेरे अन्न-जल का ऋण.